15 August 2025 Special: जिसने रॉकेट की आग में भी तिरंगे का रंग नहीं मिटने दिया, मां बोलीं- मेरा बेटा…

15 August 2025 Special: कारगिल की वो रात ठंडी नहीं थी। वो तप रही थी। सिर्फ गोलियों की आग से नहीं, दिलों के अंदर सुलगते उस जुनून से, जो एक बार भड़क जाए तो मौत भी सिर झुकाकर गुजरती है। जगह थी मशकोह वैली, नाम था प्वाइंट 4875, ऊंचाई 15,990 फीट, और हालात इतने बेरहम कि सांस लेना भी एक जंग थी।

यह कोई आम पोस्ट नहीं थी। ये भारत की नज़रों, दिलों और मान पर बैठा एक ज़ख्म था। जिसे दुश्मन ने छल से कब्जा कर लिया था। आतंकियों की शक्ल में पाकिस्तानी सैनिक इस चोटी पर काबिज़ थे और वहां से द्रास सेक्टर पर हर वक्त मौत की बारिश कर रहे थे। ये चोटी अगर नहीं ली जाती, तो कारगिल की लड़ाई अधूरी रह जाती। यही वजह थी कि इसको जीतने का ज़िम्मा 17 जाट रेजीमेंट को दिया गया।

6 जुलाई 1999 की रात थी, जब मेजर ऋतेश शर्मा की अगुवाई में चार्ली कंपनी ने चढ़ाई शुरू की। चढ़ाई क्या थी, हर कदम पर मौत बिछी थी। ऊपर से मोर्टार की बारिश, नीचे बर्फ की ढलान, और बीच में दुश्मन की घात। मेजर ऋतेश बुरी तरह घायल हुए। और फिर मोर्चा संभाला एक ऐसे नौजवान ने, जिसे शायद किस्मत ने इसी दिन के लिए पैदा किया था – कैप्टन अनुज नय्यर

कैप्टन अनुज नय्यर

जब उन्होंने चार्ली कंपनी की कमान संभाली, तब तक हालात पूरी तरह बिगड़ चुके थे। दुश्मन के बंकर मज़बूत थे, गोलियां लगातार चल रही थीं और अपने कई साथी शहीद हो चुके थे। लेकिन अनुज पीछे हटने वालों में से नहीं थे। उन्होंने सबसे पहले अपनी टीम को दो हिस्सों में बांटा। एक का नेतृत्व दिया कैप्टन विक्रम बत्रा को, दूसरी को खुद लीड करने का फैसला किया।

कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं हुईं, कोई फिल्मी भाषण नहीं। बस एक सख्त नज़र और इतना कहा – “बंकर टूटने चाहिए… चाहे हम टूट जाएं।”

जैसे ही अगला हमला शुरू हुआ, दुश्मन ने बंकरों से फायरिंग तेज कर दी। लेकिन इस बार भारतीय सैनिकों की चाल अलग थी। अनुज ने एक टोही टीम भेजी, जिसने दुश्मन के चार बंकरों की लोकेशन पक्की कर दी। अब हमला होना था। सामने से, सीना तान के।

बर्फीली रात में भारतीय सैनिक बिलकुल करीब पहुंच चुके थे। सिर्फ कुछ मीटर की दूरी पर मौत खड़ी थी। तभी अनुज ने पहला हमला किया। रॉकेट लॉन्चर से एक पूरा बंकर उड़ा दिया। फिर ग्रेनेड से दूसरा। एक-एक कर तीन बंकर तबाह हुए। दुश्मन चीख रहा था, लेकिन भारतीय टीम अब पीछे नहीं हटने वाली थी। अनुज खुद सबसे आगे थे। गोली चलाने वाले हाथ नहीं कांप रहे थे। आंखों में सिर्फ एक ही मंज़र था। तिरंगा उस चोटी पर।

उन्होंने तीन बंकर तबाह किए। खुद की अगुवाई में। गोलीबारी के बीच। चौथे की ओर बढ़ते वक़्त दुश्मन बौखला गया। उसने ऑटोमैटिक हैवी मशीनगन से अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। हर दिशा से बारूद की बू आ रही थी। लेकिन अनुज का कदम नहीं रुका।

आखिरी बंकर की तरफ बढ़ते हुए एक रॉकेट ग्रेनेड सीधा उनकी ओर आया। ज़मीन कांपी। बंकर हिल गया। लेकिन अनुज वहीं गिरे। गंभीर रूप से घायल, खून से लथपथ। फिर भी उनके हाथ की उंगलियां आखिरी तक ट्रिगर पर टिकी थीं। वह वहीं, युद्धभूमि में, तिरंगे से कुछ ही कदम दूर शहीद हो गए।

पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मौत से पहले अनुज नौ पाकिस्तानी सैनिकों को मार चुके थे। तीन मशीनगन पोजीशन तबाह कर चुके थे। और चौथे बंकर को भी इस हालत में छोड़ गए थे कि भारतीय झंडा वहां लहरा सके। उस सुबह जब सूरज निकला, बर्फीली चोटी पर तिरंगा फहरा रहा था। और उसके नीचे बर्फ में पड़ा था कैप्टन अनुज नय्यर का शरीर – शांत, लेकिन अमर।

उनके माता-पिता को जब खबर मिली, तो मां ने सिर्फ एक बात कही – “मेरा बेटा अकेला नहीं गया, वो तिरंगे के साथ गया है।”

अनुज को मरणोपरांत महावीर चक्र मिला। लेकिन वो सिर्फ एक मेडल नहीं था। वो एक ऐसे योद्धा की पहचान थी जो बिना शोर किए, बिना पीछे देखे, बस आगे बढ़ा। और एक चोटी को, एक देश को, और एक पीढ़ी को हमेशा के लिए बदल गया।

अगर आज भी कभी द्रास की उन बर्फीली पहाड़ियों पर जाओ, तो हवा में एक आवाज़ अब भी तैरती है – “चार्ली कंपनी, प्वाइंट 4875… रिपोर्टिंग विक्टरी, सर!”

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  • मैं लिखने और सोचने का शौक़ीन हूँ। मेरा मानना है कि अच्छे लेख केवल जानकारी नहीं देते, बल्कि पाठकों को सोचने पर मजबूर भी करते हैं।

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